Saturday, May 30, 2009

चिन्तन में प्रामाणिकता श्रद्धा से आती है

कविता संग्रह >> जीवनी >> श्रीअरविंदः मेरी दृष्टि में
खरीदें रामधारी सिंह दिनकर
लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशित: जनवरी ०१, २००८

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दिनकर ने इस पुस्तक में योगिराज अरविन्द की विकासवाद, अतिमानव की अवधारणा एवं साहित्यिक मान्यताओं को बहुत ही सरलता से बताया है। श्री अरविन्द केवल एक क्रान्तिकारी ही नहीं, उच्चकोटि के साधक थे। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-‘‘श्री अरविन्द की साधना अथाह थी, उनका व्यक्तित्व गहन और विशाल था और उनका साहित्य दुर्गम समुद्र के समान है।’’ इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ श्री अरविन्द की कालजयी चौदह कविताओं को भी संकलित किया गया है जो स्वयं राष्ट्रकवि दिनकर द्वारा अपनी विशिष्ट भाषा-शैली में अनूदित की गई हैं।
भूमिका
श्री अरविन्द का शरीरपात सन् 1950 ई० के दिसम्बर मास में हुआ था, जब मैं लगभग बयालीस वर्ष का हो चुका था, लेकिन मेरा भाग्य-दोष ऐसा रहा कि मैं श्री अरविन्द के दर्शन नहीं कर सका। अब जब भी आश्रम जाता हूँ, श्री माँ के दर्शन करता हूँ और श्री अरविन्द की समाधि पर ध्यान। ध्यान चाहे जैसा भी जमे, मन के भीतर एक कचोट जरूर सालती है कि हाय, मैं आपको उस समय नहीं देख सका, जब आप शरीर के साथ थे। अब तो यही एकमात्र उपाय है कि मन से यानी अध्ययन और चिन्तन से श्री अरविन्द को समझने का प्रयास करूँ। और जिन्होंने श्री अरविन्द को नहीं देखा, उनके लिए बस यही एक उपाय है, यद्यपि अध्ययन और चिन्तन अर्थात् मन सत्य को समझने का सही मार्ग नहीं है। चिन्तन में प्रामाणिकता श्रद्धा से आती है। श्री अरविन्द व्यक्तित्व के पहलू अनेक हैं और सभी पहलू एक से बढ़कर एक उजागर हैं। राजनीति में वे केवल पाँच वर्ष तक रहे थे। किन्तु उतने ही दिनों में उन्होंने सारे देश को जगाकर उसे स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए तैयार कर दिया। असहयोग की पद्धति उन्हीं की ईजाद थी। भारत का ध्येय पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति है, यह उद्घोष भी सबसे पहले उन्हीं ने किया था। दार्शनिक तो यूरोप में बहुत उच्च कोटि के हुए हैं, किन्तु उनके दर्शन मेधा की उपज हैं, तर्क शक्ति के परिणाम हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा, देखकर लिखा, अनुभव करके लिखा। श्री अरविन्द के दर्शन का सार उनकी अनुभूति है। विचार उस अनुभूति को केवल परिधान प्रदान करता है। श्री अरविन्द ने भारत की इस परम्परा को फिर से प्रमाणित कर दिया कि सच्चा दर्शन वह है, जो सोचकर नहीं, देखकर लिखा जाता है। और श्री अरविन्द की कविता के विषय में क्या कहा जाए ? श्री अरविन्द ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं, जिनके जोड़ की या जिनसे अच्छी कविताएँ संसार में मौजूद हैं। किन्तु यही बात क्या सावित्री के प्रसंग में कहीं जा सकती है ?

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