Saturday, May 30, 2009

30 मई, 2009 को श्रीअरविंद के उत्तरपाड़ा भाषण की शताब्दी पर उनके तमाम अनुयायियों को संकल्प लेना चाहिए

राष्ट्र निर्माण का आधार May 29, 11:02 pm
प्रत्येक देश की अपनी विशेषताएं होती हैं। जर्मनी की विशिष्टता उसका संगठन है, अमेरिका की उद्यमिता, जापान की आत्मसात करने का गुण और इंग्लैंड की विशिष्टता संतुलन है। सभ्यता की गहमागहमी में भारत की विशिष्टता मस्तिष्क की शक्ति और आत्मा की शुद्धता में निहित है। इस शक्ति और शुद्धता के कारण ही भारत प्राचीन विश्व की सर्वाधिक रचनात्मक और उत्पादक सभ्यताओं में से एक है। अपने विशिष्ट अंदाज में श्री अरविंद ने कहा था, ''कम से कम तीन हजार साल से हमारा देश निरंतर तरीके से गणतंत्रों, राजशाहियों, साम्राज्यों, दर्शन, ब्रह्मंांड उत्पत्ति, विज्ञान, सिद्धांत, कला, स्मारकों, मंदिरों, समुदायों, पंथीय व्यवस्थाओं, कायदे-कानूनों, रस्मों, शारीरिक शिक्षा, मनोविज्ञान, योग पद्धति, राजनीति शास्त्र, प्रशासन आदि प्रत्येक क्षेत्र में गतिविधियों को तीव्र वेग से समृद्ध कर रहा है।'' प्राचीन भारत के साधु-संतों ने नितांत एकांत और गहन चिंतन-मनन के बल पर जीवन के रहस्यों को समझा और भारतीय जनमानस में शक्ति और साम‌र्थ्य का संचार किया। बदले में इस शक्ति और साम‌र्थ्य ने साधु-संतों की समाज को और गहराई से देखने-समझने की क्षमता बढ़ाई। परस्पर सशक्तीकरण का यह चक्र जारी रहा और साधु-संत मन-मस्तिष्क की आंतरिक खोह तक पहुंचे। जिन आधारभूत सत्यों की खोज हुई उनमें से एक यह था कि ब्रह्मंांड एक ऐसा सजीव जाल था, जिसमें जीवन का प्रत्येक तत्व और प्रकृति अन्य तत्वों के साथ पूरी तरह घुली-मिली है। इस जाल से लौकिक शक्ति आर-पार निकल जाती है। मानव और प्रकृति इसके संघटक भी हैं और अंशदाता भी। प्रकृति के साथ संतुलन और सौहार्द के साथ रहने के और भी नियम बनाए गए। वेदांत के रूप में एक दार्शनिक ढांचे का विधान हुआ और योग की व्यापक पद्धति के माध्यम से रोजमर्रा के कामकाज के दौरान मस्तिष्क के उत्कर्ष पर जाकर सच की ओर गतिशील होने का तरीका विकसित हुआ।

दुर्भाग्यवश, अनेक कारणों से 17वीं सदी से भारतीय चेतना की शक्ति का क्षरण शुरू हो गया। जल्द ही भारतीय मस्तिष्क मरुस्थल के समान हो गया, जहां कभी-कभार हरे-भरे स्थान दिखाई पड़ते थे। भारतीयों के दिलो-दिमाग पर जकड़ी बुराई को प्रबुद्ध विचारकों और सुधारवादियों की आकाशगंगा ने जरूर परास्त किया। जागरूकता फैलाकर उन्होंने 19वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरू में नवजागरण का शंखनाद किया। पुनर्जागरण के इन पुरोधाओं में श्री अरविंद भारतीयता के सबसे मजबूत प्रहरी रहे और उन्होंने इसमें निहित शक्ति पर पूरा विश्वास व्यक्त किया। उन्होंने घोषणा की, ''भारत बर्बाद नहीं हो सकता, हमारी नस्ल मिट नहीं सकती, क्योंकि मानवता के समस्त विभाजनों में भारत की नियति ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि है। यह मानव जाति के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसी को अपने अंतस से पूरे विश्व में भविष्य का पंथ प्रसारित करना है। यह शाश्वत पंथ अन्य समस्त पंथों, विज्ञानों और दर्शनों में सद्भाव पैदा करेगा और मानवता को एकात्म करेगा।'' श्री अरविंद के विचारों में सनातन धर्म और भारत एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रूप में प्रतीत होते हैं, किंतु आज से ठीक सौ साल पहले पश्चिम बंगाल में हुगली के तट पर स्थित एक छोटे से कस्बे उत्तरपाड़ा में दिए गए अपने विख्यात भाषण में उन्होंने सनातम धर्म को ऊंचे पायदान पर रखा। उन्होंने इन यादगार शब्दों में अपने उद्गार प्रस्तुत किए, ''जब भी यह कहा जाता है कि भारत का उदय होगा तो यह सनातन धर्म है जिसका उदय होगा।''

श्री अरविंद स्पष्ट कर देते हैं कि सनातन धर्म केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के उत्थान के लिए है- ''यह पंथ जिसे हम सनातन कहते हैं, शाश्वत है। यह हिंदू धर्म इसलिए है, क्योंकि इसकी स्थापना हिंदू राष्ट्र में हुई है, किंतु यह एक राष्ट्र तक सीमित नहीं है। जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं वास्तव में वह अनादि धर्म है, क्योंकि यह सार्वभौमिक धर्म है जो अन्य समस्त का आलिंगन करता है।'' यह ध्यान देने योग्य है कि उत्तरपारा भाषण से पहले श्री अरविंद ने खुद को मुख्य रूप से मानव चेतना की मुक्ति तक ही सीमित रखा। उन्होंने स्पष्ट किया, ''अध्यात्म ही भारत की एकमात्र राजनीति है और सनातन धर्म ही एकमात्र स्वराज।'' भारत का पुनर्जन्म ही विश्व को भौतिकवाद की गुलामी से मुक्ति दिला सकता है। उत्तरपाड़ा के प्रवचन के बाद श्री अरविंद के विचारों में तीक्ष्ण बदलाव नजर आए। उनका उद्देश्य भारत की आत्मा को मुक्त करना और सनातन धर्म को राष्ट्रीय धर्म के रूप में स्थापित करना बन गया। वह सनातन धर्म को एक ऐसे धर्म के रूप में देखना चाहते थे जो बहुलवादी, सर्व-समावेशी, अ-वर्गीय और आत्मिक हो। वह भारत को ऐसे कर्मयोगियों का देश बनाना चाहते थे जो अपनी सफलताओं पर आत्ममुग्ध न हों और असफलताओं पर दुखी न हों, जो आवेश में न आएं और खुद को इतना ऊपर ले जाएं जहां संकल्प और दैवीय संकल्प में कोई अंतर न हो। उनकी दृष्टि भारत की विरासत का इस्तेमाल कर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करने पर थी जहां जीवन पावन हो जाए।

आज क्या स्थिति है? क्या श्री अरविंद के दृष्टिकोण और आज के भारत के यथार्थ के बीच काली छाया नहीं पड़ गई है? आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का संचालन ऐसे लोग कर रहे हैं जो दृष्टिहीन होने के बावजूद हाथ में लालटेन लेकर चलते हैं। 30 मई, 2009 को श्री अरविंद के उत्तरपाड़ा भाषण की शताब्दी पर उनके तमाम अनुयायियों को यह संकल्प लेना चाहिए कि वर्तमान हताशाजनक परिदृश्य पर वे हिम्मत नहीं हारेंगे और बीसवीं सदी के इस महान संत के स्वप्नों को साकार करने के लिए मनोयोग से जुटेंगे। बेशक यह एक दुष्कर कार्य है, लक्ष्य बहुत दूर है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि बड़ी से बड़ी यात्रा की शुरुआत भी पहले कदम से ही होती है। Jagran - Yahoo! India - News

[सौ साल पहले धर्म और राष्ट्र के संदर्भ में महर्षि अरविंद के संबोधन की सार्थकता रेखांकित कर रहे हैं जगमोहन] Savitri Era of those who adore, Om Sri Aurobindo and The Mother.

सामाजिक सुधारों के लिए भी प्रतिबद्ध थे गोखले
याहू! भारत - ‎May 8, 2009‎
एक ओर बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष जैसे गरमपंथी विचारधारा के नेता थे, वहीं नरमपंथी विचारधारा के सिरमौर नेता गोखले थे। गोखले ने दादा भाई नैरोजी जैसे नरमपंथी नेताओं के साथ हमेशा सामजिक सुधारों पर जोर दिया। इन तमाम कद्दावर नेताओं के बावजूद गोखले अपनी स्पष्ट विचारधारा और बेबाक भाषण शैली के कारण भारत ही नहीं ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका जैसे कई अन्य देशों में काफी लोकप्रिय थे।

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