महर्षि श्रीअरविंद का सावित्री महाकाव्य
श्री अरविंद एक सिद्धहस्त लेखक थे। उनके लेखन का आरंभ भवानी-भारती, दुर्गा स्तुति तथा वंदेमातरम् से हुआ। ये उनके क्रांतिकारी जीवन की रचनाएं हैं। भारत को स्वतंत्र देखना उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य था। अलीपुर जेल से वापस आने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अब बाहर से नहीं भीतर (अंतरात्मा) से आंदोलन की आज्ञा दी तो वे पांडिचेरी चले गए जहां आजीवन योगी के रूप में प्रतिष्ठित रहे। भारत के स्वतंत्रता के निमित्त सदैव वे यहां से भी प्रयत्नशील रहे।
उनका लेखन अंग्रेजी भाषा में होता था।
दिव्य जीवन, गीता-प्रबंधन तथा श्री मां जैसे ग्रंथों के अतिरिक्त भी उनके अनेक ग्रंथ हैं जिनमें सर्वाधिक महत्व का सावित्री महाकाव्य है। यह उनकी अंतिम तथा समन्वित योग के सार तत्व की रचना है। अंग्रेजी भाषा का यह सबसे विशिष्ट महाकाव्य माना जाता है। अमेरिका में सायराकूसविश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा.पाइपर ने इस ग्रंथ के विषय में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं। इस महाकाव्य ने नवयुग की ज्योति का शुभारंभ कर दिया है। अंग्रेजी भाषा का यह सबसे विशिष्ट महाकाव्य है।
वस्तुत: सावित्री मनुष्य के मन को विस्तृत कर परम स्वयंभू तक ले जाने के लिए सबसे शक्तिशाली कलात्मक रचना है। यह विशाल है, भव्य है तथा इसमें रूपकों का चमत्कार है। मनुष्यों की पीढी दर पीढी इन निरंतर स्रोत से अपनी आत्मा का अमृतपानकरती रहेगी।
इसका कथानक श्रीअरविन्द ने महाभारत से लिया तथा सावित्री और सत्यवान की प्रसिद्ध कथा को लेकर मनुष्य की मृत्यु पर विजय दिखाई है। उनके ही शब्दों में-सावित्री सूर्यपुत्री है सर्वोच्च सत्य की देवी है। सावित्री का पिता अश्वपति तपस्या का अधिपति है। सत्यवान का पिता द्युगत्सेनदिव्यमनहै। वस्तुत:यह कथन रूपक मात्र नहीं है। न इसके पात्र ही मानवीय गुणों वाले ही हैं वरन् वे सजीव और चेतन शक्तियों के अवतार और विभूतियां हैं। श्री मां ने सावित्री के विषय में जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है-उन्होंने सारे विश्व को एक पुस्तक में उतार लिया है। यह अद्भुत, भव्य और अद्वितीय पूर्णता से भरी हुई रचना है। श्री अरविन्द का योग वैज्ञानिक है। भोग सत्य का एक छोर है तो वैराग्य दूसरा। संपूर्ण सत्य वह है जो दोनों को अपने भीतर समाहित करता है और फिर दोनों से आगे निकल जाता है। सावित्री इसी तथ्य का दिग्दर्शन कराती है। डारविनका विकासवादअधूरा है। क्या प्रकृति अब आगे कोई रचना नहीं करेगी! विकास का रथ रुक जाएगा? नहीं। अब प्रकृति मानव के भीतर अतिमानव की संभावनाएं तलाश रही है।
श्रीअरविन्द का समन्वित योग मानव को अतिमानव तक पहुंचाना है। इसी के निमित्त उनकी योग साधना थी। अतिमानवीचेतना मनुष्य के मन के भीतर छिपी हुई है। अब वह प्रकट होने के समीप है। मनुष्य अगर साधना पूर्वक उस चेतना को ग्रहण करने का प्रयास करे तो अतिमानसीचेतना अवश्य उत्तीर्ण होगी। प्रकृति के पीछे जो विश्वात्मा विराजमान है उसके साथ अभिन्नतास्थापित कर अनन्त शक्ति से शक्तिमान होना है। मनुष्य के अंदर जो सुप्त देवता विद्यमान है उसको जागृत कर मनुष्य का रूपान्तर साधित करना होगा। पृथ्वी की अन्तर्निहित विराट चेतना को उद्बुद्ध कर यहीं पर स्वर्ग राज्य को स्थापित करना होगा। इस महान ग्रंथ का काव्यानुवादमहान कवयित्री विद्यावती कोकिल ने हिंदी में किया है इसी से यह हमें उपलब्ध है। डा. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
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