Saturday, May 30, 2009

30 मई, 2009 को श्रीअरविंद के उत्तरपाड़ा भाषण की शताब्दी पर उनके तमाम अनुयायियों को संकल्प लेना चाहिए

राष्ट्र निर्माण का आधार May 29, 11:02 pm
प्रत्येक देश की अपनी विशेषताएं होती हैं। जर्मनी की विशिष्टता उसका संगठन है, अमेरिका की उद्यमिता, जापान की आत्मसात करने का गुण और इंग्लैंड की विशिष्टता संतुलन है। सभ्यता की गहमागहमी में भारत की विशिष्टता मस्तिष्क की शक्ति और आत्मा की शुद्धता में निहित है। इस शक्ति और शुद्धता के कारण ही भारत प्राचीन विश्व की सर्वाधिक रचनात्मक और उत्पादक सभ्यताओं में से एक है। अपने विशिष्ट अंदाज में श्री अरविंद ने कहा था, ''कम से कम तीन हजार साल से हमारा देश निरंतर तरीके से गणतंत्रों, राजशाहियों, साम्राज्यों, दर्शन, ब्रह्मंांड उत्पत्ति, विज्ञान, सिद्धांत, कला, स्मारकों, मंदिरों, समुदायों, पंथीय व्यवस्थाओं, कायदे-कानूनों, रस्मों, शारीरिक शिक्षा, मनोविज्ञान, योग पद्धति, राजनीति शास्त्र, प्रशासन आदि प्रत्येक क्षेत्र में गतिविधियों को तीव्र वेग से समृद्ध कर रहा है।'' प्राचीन भारत के साधु-संतों ने नितांत एकांत और गहन चिंतन-मनन के बल पर जीवन के रहस्यों को समझा और भारतीय जनमानस में शक्ति और साम‌र्थ्य का संचार किया। बदले में इस शक्ति और साम‌र्थ्य ने साधु-संतों की समाज को और गहराई से देखने-समझने की क्षमता बढ़ाई। परस्पर सशक्तीकरण का यह चक्र जारी रहा और साधु-संत मन-मस्तिष्क की आंतरिक खोह तक पहुंचे। जिन आधारभूत सत्यों की खोज हुई उनमें से एक यह था कि ब्रह्मंांड एक ऐसा सजीव जाल था, जिसमें जीवन का प्रत्येक तत्व और प्रकृति अन्य तत्वों के साथ पूरी तरह घुली-मिली है। इस जाल से लौकिक शक्ति आर-पार निकल जाती है। मानव और प्रकृति इसके संघटक भी हैं और अंशदाता भी। प्रकृति के साथ संतुलन और सौहार्द के साथ रहने के और भी नियम बनाए गए। वेदांत के रूप में एक दार्शनिक ढांचे का विधान हुआ और योग की व्यापक पद्धति के माध्यम से रोजमर्रा के कामकाज के दौरान मस्तिष्क के उत्कर्ष पर जाकर सच की ओर गतिशील होने का तरीका विकसित हुआ।

दुर्भाग्यवश, अनेक कारणों से 17वीं सदी से भारतीय चेतना की शक्ति का क्षरण शुरू हो गया। जल्द ही भारतीय मस्तिष्क मरुस्थल के समान हो गया, जहां कभी-कभार हरे-भरे स्थान दिखाई पड़ते थे। भारतीयों के दिलो-दिमाग पर जकड़ी बुराई को प्रबुद्ध विचारकों और सुधारवादियों की आकाशगंगा ने जरूर परास्त किया। जागरूकता फैलाकर उन्होंने 19वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरू में नवजागरण का शंखनाद किया। पुनर्जागरण के इन पुरोधाओं में श्री अरविंद भारतीयता के सबसे मजबूत प्रहरी रहे और उन्होंने इसमें निहित शक्ति पर पूरा विश्वास व्यक्त किया। उन्होंने घोषणा की, ''भारत बर्बाद नहीं हो सकता, हमारी नस्ल मिट नहीं सकती, क्योंकि मानवता के समस्त विभाजनों में भारत की नियति ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि है। यह मानव जाति के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसी को अपने अंतस से पूरे विश्व में भविष्य का पंथ प्रसारित करना है। यह शाश्वत पंथ अन्य समस्त पंथों, विज्ञानों और दर्शनों में सद्भाव पैदा करेगा और मानवता को एकात्म करेगा।'' श्री अरविंद के विचारों में सनातन धर्म और भारत एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रूप में प्रतीत होते हैं, किंतु आज से ठीक सौ साल पहले पश्चिम बंगाल में हुगली के तट पर स्थित एक छोटे से कस्बे उत्तरपाड़ा में दिए गए अपने विख्यात भाषण में उन्होंने सनातम धर्म को ऊंचे पायदान पर रखा। उन्होंने इन यादगार शब्दों में अपने उद्गार प्रस्तुत किए, ''जब भी यह कहा जाता है कि भारत का उदय होगा तो यह सनातन धर्म है जिसका उदय होगा।''

श्री अरविंद स्पष्ट कर देते हैं कि सनातन धर्म केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के उत्थान के लिए है- ''यह पंथ जिसे हम सनातन कहते हैं, शाश्वत है। यह हिंदू धर्म इसलिए है, क्योंकि इसकी स्थापना हिंदू राष्ट्र में हुई है, किंतु यह एक राष्ट्र तक सीमित नहीं है। जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं वास्तव में वह अनादि धर्म है, क्योंकि यह सार्वभौमिक धर्म है जो अन्य समस्त का आलिंगन करता है।'' यह ध्यान देने योग्य है कि उत्तरपारा भाषण से पहले श्री अरविंद ने खुद को मुख्य रूप से मानव चेतना की मुक्ति तक ही सीमित रखा। उन्होंने स्पष्ट किया, ''अध्यात्म ही भारत की एकमात्र राजनीति है और सनातन धर्म ही एकमात्र स्वराज।'' भारत का पुनर्जन्म ही विश्व को भौतिकवाद की गुलामी से मुक्ति दिला सकता है। उत्तरपाड़ा के प्रवचन के बाद श्री अरविंद के विचारों में तीक्ष्ण बदलाव नजर आए। उनका उद्देश्य भारत की आत्मा को मुक्त करना और सनातन धर्म को राष्ट्रीय धर्म के रूप में स्थापित करना बन गया। वह सनातन धर्म को एक ऐसे धर्म के रूप में देखना चाहते थे जो बहुलवादी, सर्व-समावेशी, अ-वर्गीय और आत्मिक हो। वह भारत को ऐसे कर्मयोगियों का देश बनाना चाहते थे जो अपनी सफलताओं पर आत्ममुग्ध न हों और असफलताओं पर दुखी न हों, जो आवेश में न आएं और खुद को इतना ऊपर ले जाएं जहां संकल्प और दैवीय संकल्प में कोई अंतर न हो। उनकी दृष्टि भारत की विरासत का इस्तेमाल कर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करने पर थी जहां जीवन पावन हो जाए।

आज क्या स्थिति है? क्या श्री अरविंद के दृष्टिकोण और आज के भारत के यथार्थ के बीच काली छाया नहीं पड़ गई है? आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का संचालन ऐसे लोग कर रहे हैं जो दृष्टिहीन होने के बावजूद हाथ में लालटेन लेकर चलते हैं। 30 मई, 2009 को श्री अरविंद के उत्तरपाड़ा भाषण की शताब्दी पर उनके तमाम अनुयायियों को यह संकल्प लेना चाहिए कि वर्तमान हताशाजनक परिदृश्य पर वे हिम्मत नहीं हारेंगे और बीसवीं सदी के इस महान संत के स्वप्नों को साकार करने के लिए मनोयोग से जुटेंगे। बेशक यह एक दुष्कर कार्य है, लक्ष्य बहुत दूर है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि बड़ी से बड़ी यात्रा की शुरुआत भी पहले कदम से ही होती है। Jagran - Yahoo! India - News

[सौ साल पहले धर्म और राष्ट्र के संदर्भ में महर्षि अरविंद के संबोधन की सार्थकता रेखांकित कर रहे हैं जगमोहन] Savitri Era of those who adore, Om Sri Aurobindo and The Mother.

सामाजिक सुधारों के लिए भी प्रतिबद्ध थे गोखले
याहू! भारत - ‎May 8, 2009‎
एक ओर बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष जैसे गरमपंथी विचारधारा के नेता थे, वहीं नरमपंथी विचारधारा के सिरमौर नेता गोखले थे। गोखले ने दादा भाई नैरोजी जैसे नरमपंथी नेताओं के साथ हमेशा सामजिक सुधारों पर जोर दिया। इन तमाम कद्दावर नेताओं के बावजूद गोखले अपनी स्पष्ट विचारधारा और बेबाक भाषण शैली के कारण भारत ही नहीं ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका जैसे कई अन्य देशों में काफी लोकप्रिय थे।

श्रीअरविंद की दिव्य दृष्टि को समझने की दिशा में कुछ भूमिका

महान योगी श्री अरविन्द
खरीदें मनोज दास
नेशलन बुक ट्रस्ट,इंडिया
प्रकाशित: जनवरी ०१, १९९९
सारांश:
एक बार एक विशिष्ट व्यक्ति ने श्री अरविन्द जी की जीवनी लिखने का निश्चय किया। यह बात उन्हें बताई तो उत्तर दिया - मेरी जीवनी कोई क्या लिखेगा? उसमें बाह्य दृष्टि से देखने लायक जीवन कुछ नहीं।
पर सरसरी तौर पर देखें तो श्री अरविन्द जी का जीवन इतना घटनापूर्ण है कि उस पर विराट जीवनी लिखी जा सकती है। शैशव और किशोरावस्था इंग्लैण्ड में बिताकर जब वे भारत लौटे तब तक वे 20 वर्ष के थे। यह बात 1893 की है। बाद में तेरह साल वे बड़ौदा में रहे। 1906-1909 सिर्फ तीन वर्ष प्रत्यक्ष राजनीति में रहे। इसी में देश भर के लोगों के स्नेह के भाजन बन गये। इसकी तुलना नहीं की जा सकती। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस स्मृति चारण करते हुए लिखते हैं - "जब मैं 1913 में कलकत्ता आया, अरविंद जी तब तक किंवदंती पुरुष हो चुके थे। जिस आनंद औक उत्साह के साथ लोग उनकी चर्चा करते शायद ही किसी की वैसे करते।" इस महान पुरुष के संबंध में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। ज्यादातर उनमें सच हैं।
जीवन का लक्ष्य, पृथ्वी पर दिव्य जीवन की स्थापना कैसे होगी, इस सब के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा है, कई लोग उसे कठिन तत्त्व मानते है। परन्तु आध्यात्मिक तत्त्व को समझने की शक्ति भारतीय चेतना का सहज गुण है। हालांकि कि इस पुस्तक में उनका योग और दर्शन पर जितना लेखन है, उसे भी सरल ढंग से प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है। आशा है श्री अरविंद की दिव्य दृष्टि को समझने की दिशा में कुछ भूमिका के रूप में पाठकों की मदद कर सकेगी। मुख्र्य पृष्ठ

चिन्तन में प्रामाणिकता श्रद्धा से आती है

कविता संग्रह >> जीवनी >> श्रीअरविंदः मेरी दृष्टि में
खरीदें रामधारी सिंह दिनकर
लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशित: जनवरी ०१, २००८

सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दिनकर ने इस पुस्तक में योगिराज अरविन्द की विकासवाद, अतिमानव की अवधारणा एवं साहित्यिक मान्यताओं को बहुत ही सरलता से बताया है। श्री अरविन्द केवल एक क्रान्तिकारी ही नहीं, उच्चकोटि के साधक थे। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-‘‘श्री अरविन्द की साधना अथाह थी, उनका व्यक्तित्व गहन और विशाल था और उनका साहित्य दुर्गम समुद्र के समान है।’’ इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ श्री अरविन्द की कालजयी चौदह कविताओं को भी संकलित किया गया है जो स्वयं राष्ट्रकवि दिनकर द्वारा अपनी विशिष्ट भाषा-शैली में अनूदित की गई हैं।
भूमिका
श्री अरविन्द का शरीरपात सन् 1950 ई० के दिसम्बर मास में हुआ था, जब मैं लगभग बयालीस वर्ष का हो चुका था, लेकिन मेरा भाग्य-दोष ऐसा रहा कि मैं श्री अरविन्द के दर्शन नहीं कर सका। अब जब भी आश्रम जाता हूँ, श्री माँ के दर्शन करता हूँ और श्री अरविन्द की समाधि पर ध्यान। ध्यान चाहे जैसा भी जमे, मन के भीतर एक कचोट जरूर सालती है कि हाय, मैं आपको उस समय नहीं देख सका, जब आप शरीर के साथ थे। अब तो यही एकमात्र उपाय है कि मन से यानी अध्ययन और चिन्तन से श्री अरविन्द को समझने का प्रयास करूँ। और जिन्होंने श्री अरविन्द को नहीं देखा, उनके लिए बस यही एक उपाय है, यद्यपि अध्ययन और चिन्तन अर्थात् मन सत्य को समझने का सही मार्ग नहीं है। चिन्तन में प्रामाणिकता श्रद्धा से आती है। श्री अरविन्द व्यक्तित्व के पहलू अनेक हैं और सभी पहलू एक से बढ़कर एक उजागर हैं। राजनीति में वे केवल पाँच वर्ष तक रहे थे। किन्तु उतने ही दिनों में उन्होंने सारे देश को जगाकर उसे स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए तैयार कर दिया। असहयोग की पद्धति उन्हीं की ईजाद थी। भारत का ध्येय पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति है, यह उद्घोष भी सबसे पहले उन्हीं ने किया था। दार्शनिक तो यूरोप में बहुत उच्च कोटि के हुए हैं, किन्तु उनके दर्शन मेधा की उपज हैं, तर्क शक्ति के परिणाम हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा, देखकर लिखा, अनुभव करके लिखा। श्री अरविन्द के दर्शन का सार उनकी अनुभूति है। विचार उस अनुभूति को केवल परिधान प्रदान करता है। श्री अरविन्द ने भारत की इस परम्परा को फिर से प्रमाणित कर दिया कि सच्चा दर्शन वह है, जो सोचकर नहीं, देखकर लिखा जाता है। और श्री अरविन्द की कविता के विषय में क्या कहा जाए ? श्री अरविन्द ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं, जिनके जोड़ की या जिनसे अच्छी कविताएँ संसार में मौजूद हैं। किन्तु यही बात क्या सावित्री के प्रसंग में कहीं जा सकती है ?

श्रीअरविन्द का समन्वित योग मानव को अतिमानव तक पहुंचाना है

महर्षि श्रीअरविंद का सावित्री महाकाव्य

श्री अरविंद एक सिद्धहस्त लेखक थे। उनके लेखन का आरंभ भवानी-भारती, दुर्गा स्तुति तथा वंदेमातरम् से हुआ। ये उनके क्रांतिकारी जीवन की रचनाएं हैं। भारत को स्वतंत्र देखना उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य था। अलीपुर जेल से वापस आने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अब बाहर से नहीं भीतर (अंतरात्मा) से आंदोलन की आज्ञा दी तो वे पांडिचेरी चले गए जहां आजीवन योगी के रूप में प्रतिष्ठित रहे। भारत के स्वतंत्रता के निमित्त सदैव वे यहां से भी प्रयत्नशील रहे।

उनका लेखन अंग्रेजी भाषा में होता था।
दिव्य जीवन, गीता-प्रबंधन तथा श्री मां जैसे ग्रंथों के अतिरिक्त भी उनके अनेक ग्रंथ हैं जिनमें सर्वाधिक महत्व का सावित्री महाकाव्य है। यह उनकी अंतिम तथा समन्वित योग के सार तत्व की रचना है। अंग्रेजी भाषा का यह सबसे विशिष्ट महाकाव्य माना जाता है। अमेरिका में सायराकूसविश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा.पाइपर ने इस ग्रंथ के विषय में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं। इस महाकाव्य ने नवयुग की ज्योति का शुभारंभ कर दिया है। अंग्रेजी भाषा का यह सबसे विशिष्ट महाकाव्य है।

वस्तुत: सावित्री मनुष्य के मन को विस्तृत कर परम स्वयंभू तक ले जाने के लिए सबसे शक्तिशाली कलात्मक रचना है। यह विशाल है, भव्य है तथा इसमें रूपकों का चमत्कार है। मनुष्यों की पीढी दर पीढी इन निरंतर स्रोत से अपनी आत्मा का अमृतपानकरती रहेगी।

इसका कथानक श्रीअरविन्द ने महाभारत से लिया तथा सावित्री और सत्यवान की प्रसिद्ध कथा को लेकर मनुष्य की मृत्यु पर विजय दिखाई है। उनके ही शब्दों में-सावित्री सूर्यपुत्री है सर्वोच्च सत्य की देवी है। सावित्री का पिता अश्वपति तपस्या का अधिपति है। सत्यवान का पिता द्युगत्सेनदिव्यमनहै। वस्तुत:यह कथन रूपक मात्र नहीं है। न इसके पात्र ही मानवीय गुणों वाले ही हैं वरन् वे सजीव और चेतन शक्तियों के अवतार और विभूतियां हैं। श्री मां ने सावित्री के विषय में जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है-उन्होंने सारे विश्व को एक पुस्तक में उतार लिया है। यह अद्भुत, भव्य और अद्वितीय पूर्णता से भरी हुई रचना है। श्री अरविन्द का योग वैज्ञानिक है। भोग सत्य का एक छोर है तो वैराग्य दूसरा। संपूर्ण सत्य वह है जो दोनों को अपने भीतर समाहित करता है और फिर दोनों से आगे निकल जाता है। सावित्री इसी तथ्य का दिग्दर्शन कराती है। डारविनका विकासवादअधूरा है। क्या प्रकृति अब आगे कोई रचना नहीं करेगी! विकास का रथ रुक जाएगा? नहीं। अब प्रकृति मानव के भीतर अतिमानव की संभावनाएं तलाश रही है।

श्रीअरविन्द का समन्वित योग मानव को अतिमानव तक पहुंचाना है। इसी के निमित्त उनकी योग साधना थी। अतिमानवीचेतना मनुष्य के मन के भीतर छिपी हुई है। अब वह प्रकट होने के समीप है। मनुष्य अगर साधना पूर्वक उस चेतना को ग्रहण करने का प्रयास करे तो अतिमानसीचेतना अवश्य उत्तीर्ण होगी। प्रकृति के पीछे जो विश्वात्मा विराजमान है उसके साथ अभिन्नतास्थापित कर अनन्त शक्ति से शक्तिमान होना है। मनुष्य के अंदर जो सुप्त देवता विद्यमान है उसको जागृत कर मनुष्य का रूपान्तर साधित करना होगा। पृथ्वी की अन्तर्निहित विराट चेतना को उद्बुद्ध कर यहीं पर स्वर्ग राज्य को स्थापित करना होगा। इस महान ग्रंथ का काव्यानुवादमहान कवयित्री विद्यावती कोकिल ने हिंदी में किया है इसी से यह हमें उपलब्ध है। डा. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ

श्रीअरविन्द के ''भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ'' पुस्तक

एनजीओ बनाम सरकार

Thursday , Apr 16,2009, 08:38:04 PM आज तो हमारी विशाल ब्यूरोक्रेसी को देखकर श्रीअरविन्द के ''भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ'' पुस्तक के इस अंश की याद आती है ''प्राचीन भारतीय प्रशासनिक तंत्र का क्रमिक विकास तत्समय विद्यमान रीति रिवाजों तथा व्यवस्थाओं को ये रखकर तथा बलाए ताक में रखकर, तथा सुनिश्चित परिपाटियों का, सामाजिक व राजनैतिक पूर्वोदाहरणों का निर्वाह करते हुए ही हुआ है। इसने कभी भी जन-जीवन की स्वाभाविक मनोवृत्ति के स्थान पर उस यन्त्रचालित एवं एकांगी तंत्र को नहीं अपनाया, जो कि यूरोपीय देशों की आज दिखाई देने वाली भीमकाय नौकरशाही के रूप में सामने आई है।'' Deshbandhu, Online news portal,देशबन्धु पत्र नही ... श्री अरविन्द - विकिपीडिया

16-चिंतन्- टिप्पणी जोड़ें khorendra kumar द्वारा 23 मई, 2009 6:48:00 AM IST पर पोस्टेड # चिंतनश्रीअरविंद कहते हैकि मनुष्य जो कुछ सोचता है ,उस चिंतन के तथ्य के कारनठीक वही बन सकता है /इस तथ्य का ज्ञान की मनुष्य जो सोचता है ठीक वही बन जाता है, मनुश्य की सत्ता के विकास के लिए एक बडीमहत्वपूर्ण चाबी है -और केवल सत्ता की संभावनाओं के दृष्टिकोण से ही नही ,संयम तथा इस चुनाव के दृष्टि कोण से भी की मनुश्य क्या होना चाहता है /{श्रीअरविन्द} Savitri Era of those who adore, Om Sri Aurobindo & The Mother.

श्रीअरविन्द की भविष्यवाणी सत्य हो कर रहेगी

फिर अखण्ड होगा भारत- महर्षि अरविन्द
- ललित मोहन शर्मा
फिर एक होगा भारत

महान् क्रांतिकारी-योगिराज-महर्षि अरविन्द ने आज से 60 वर्ष पहले 1957 में यह भविष्यवाणी कर दी थी कि ''देर चाहे कितनी भी हो पाकिस्तान का विघटन और भारत में विलय निश्चित है।'' इसकी एक झलक हमें श्री अरविन्द की जन्मशताब्दी वर्ष 1972 में देखने को मिली थी। उस समय 92 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने हथियार डालकर भारतीयों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। उल्लेखनीय है कि महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 में को हुआ था और हमारा स्वतंत्रता दिवस भी 15 अगस्त ही है। यह मात्र संयोग ही नहीं बल्कि भगवान द्वारा श्री अरविन्द के बताए मार्ग पर चलने की स्वीकृति भी है।

15 अगस्त 1947 को देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के अवसर पर योगिराज ने स्वयं अपने उद्बोधन में कहा कि ''भागवत शक्ति ने- जो कि मेरा पथ-प्रदर्शन करती है- उस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी है और उस पर मुहर लगा दी है जिसके साथ-साथ मैंने अपना जीवन आरम्भ किया था। देश का विभाजन दूर होना ही चाहिए, वह दूर होगा या तो तनाव के ढीले पड़ जाने से या शांति और समझौते की आवश्यकता को धीरे-धीरे हृदयंगम करने से, या किसी कार्य को मिलजुलकर करने की सतत् आवश्यकता से या उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधनों की जरूरतों को महसूस करने से। जिस किसी तरह क्यों न हो, विभाजन दूर होना ही चाहिए और दूर होकर ही रहेगा। उन्होंने यही बात सन् 1950 में अपने प्रिय शिष्य कन्हैया लाल माणिक मुंशी जी से भी कही थी। महर्षि ने कहा कि ''भारत फिर से एक होगा मैं उसे स्पष्ट देख रहा हूं।'' प्रस्तुतकर्ता संजीव कुमार सिन्हा पर 12:10 PM Thursday, 23 August, 2007 लेबल: 3 टिप्पणियाँ:

Shaktistambh said...
यह लेख और उस में व्यक्त विचार व भावनायें बहुत सराहनीय हैं। ऐसी भावनाओं पर हमारे तथाकथित सेक्युलरवादी तथा उदारवादी बड़ी तीखी प्रतिक्रिया करते हैं। मुझे तो उनकी अज्ञानता पर ही तरस आता है। वह यह समझने की भूल करते हैं कि मुस्लिम व अंग्रेज़ आक्रमणकारियों द्वारा भारत पर कब्ज़ा किये जाने से पूर्व भारत एक राष्ट्र था जिसमें आज का पाकिस्तान व बांग्लादेश भी सम्मिल्लित था। देश तो बनते हैं और टूटते हैं पर राष्ट्र कभी टूटता या विभाजित नहीं होता। जर्मनी व वियतनाम (और कोरिया भी) एक राष्ट्र थे पर उनका राजनैतिक व अन्य कारणों से दो देशों में विभाजन हो गया जो अप्राकृतिक था। अन्तत: दोनों देश एक हो गये। सोवियत संघ भी एक देश अवश्य था पर वह एक राष्ट्र कभी न हो सका और अन्तत: अलग-अलग देशों व राष्ट्रों में विभक्त हो गया। भारत देश का विभाजन भी राजनैतिक है, स्वाभाविक नहीं और राष्ट्र तो आज भी एक है। राष्ट्र को कोई विभक्त नहीं कर सकता। भारत के साथ भी वही होगा जो जर्मनी और वियतनाम में हुआ। भारत पुन: एक हो कर रहेगा और श्री अरविन्द की भविष्यवाणी सत्य हो कर रहेगी। 23 August, 2007 7:26 PM Post a Comment Savitri Era of those who adore, Om Sri Aurobindo & The Mother.