स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रखर राष्ट्रवाद की भावना से जनता को जबरदस्त रूप से आंदोलित करने वाले अरविंद जब इस बात पर पूरी तरह आश्वस्त हो गए कि अब स्वाधीनता का उद्देश्य उनके बगैर भी पूरा हो जाएगा तब वह योग और अध्यात्म में रम गए.
अरविंद आश्रम से निकलने वाली पत्रिका ‘कर्मधारा’ के सह संपादक त्रियुगी नारायण के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि श्री अरविंद जब अलीपुर जेल में थे तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए जिन्होंने उनसे कहा कि अब स्वाधीनता का कार्य तुम्हारे बगैर भी पूरा हो जाएगा. इस प्रकार वह योग और अध्यात्म में रम गए.
नारायण ने कहा कि उन पर जेल में स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान का भी गंभीर असर पड़ा. हालांकि उनमें योग के प्रति अनुराग पहले से पनप रहा था.
प्रकृति में गहन विश्वास करने वाले महर्षि अरविंद मानते थे कि मानव का विकास अतिमानव के रूप में करना है जहां वह विभिन्न बंधनों से मुक्त होगा.
अरविंद घोष का जन्म कलकत्ता में 15 अगस्त 1872 में हुआ था. उनके पिता डॉ. कृष्ण धन घोष अंग्रेजी शिक्षा के कट्टर समर्थक थे इसलिए उन्होंने अरविंद को सात साल की उम्र में उनके भाइयों के साथ ब्रिटेन भेज दिया. ब्रिटेन में अरविंद ने बेहद अभाव में बचपन गुजारा क्योंकि उनके डॉक्टर पिता अक्सर अपने बच्चों को मासिक खर्च भेजना भूल जाते थे.
ब्रिटेन में शिक्षा के बाद वह पिता की इच्छा पूरी करने के लिए आईसीएस की परीक्षा में बैठे. लेकिन दो वर्ष की परिवीक्षा अवधि के दौरान उनके दिमाग में यह बात बैठ गयी कि उन्हें ब्रिटिश सरकार की सेवा नहीं करनी है और वह घुड़सवारी की परीक्षा में जानबूझकर शरीक नहीं हुए जिससे वह ब्रिटिश सरकार की प्रशासनिक सेवा में जाने से बच गये.
अरविंद 1893 में भारत वापस लौट आये. उनके पहुंचने से पहले एक बहुत बड़ा हादसा यह हुआ कि एजेंट ने उनके पिता को यह गलत सूचना दे दी कि जिस जहाज से अरविंद मुम्बई आ रहे थे वह पुर्तगाल में डूब गया. इस सदमे को उनके पिता बर्दाश्त नहीं कर पाए और चल बसे.
भारत पहुंचने पर अरविंद को बड़ौदा स्टेट की प्रशासनिक नौकरी मिली. वह विभिन्न प्रशासनिक विभागों के अलावा बड़ौदा कालेज में अंग्रेजी भी पढ़ाते थे. उनके शिष्यों में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे कुछ योग्य शिष्य शामिल थे. इसके साथ ही वह हिंदी, संस्कृत और बांग्ला का गहन अध्ययन करने लगे जिनसे वह इंग्लैंड में वंचित हो गए थे. उन्होंने 1906 तक बड़ौदा स्टेट की नौकरी की. नौकरी के दौरान ही वह पर्दे के पीछे से स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीति में भी दिलचस्पी लेने लगे.
स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनकी अहम भूमिका रही. इतिहास के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डा पी पी गुप्ता बताते हैं, ‘बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविंद आजादी के आंदोलन में उतरे. कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतीन, जतीन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया. उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की. उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस में गरमपंथी धड़े की विचाराधारा को भी हवा दी.’
डा गुप्ता के अनुसार, अरविंद ने बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन में बढ़चढ़ हिस्सा लिया और इसके लिए लोगों को एकजुट करने के लिए उन्होंने राखियां बंधवाने का कार्यक्रम चलाया एवं हिंदू मुस्लिम एकता की अच्छी मिसाल पेश की.’ अरविंद घोष के विचार बहुत ही क्रांतिकारी थे. उन्होंने लिखा है, ‘राजनीतिक स्वतंत्रता राष्ट्र की प्राण वायु है. राजनीतिक स्वतंत्रता के लक्ष्य के बगैर सामाजिक सुधार, शैक्षणिक सुधार, औद्योगिक विस्तार और नस्ल का नैतिक सुधार बहुत बड़ी लापरवाही और व्यर्थ है.’
अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में अलीपुर बम कांड मुकदमा चला. इस दौरान जेल में रहने के समय उन्हें विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियां हुई. जेल से निकलने के बाद वह 1910 में चंदननगर होते हुए पांडिचेरी चले गये. पांडिचेरी में उन्होंने अपने को सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह अलग करते हुए आध्यात्मिक साधना और लेखन तक सीमित रखा.
पांडिचेरी में 1914 में मीरा नामक फ्रांसीसी महिला की अरविंद से पहली बार मुलाकात हुई जिन्हें बाद में अरविंद ने अपने आश्रम के संचालन का पूरा भार सौंप दिया. अरविंद और उनके सभी अनुयायी उन्हें आदर के साथ ‘मदर’ कहकर पुकारने लगे.
अरविंद का देहांत पांच दिसंबर 1950 को हुआ. बताया जाता है कि निधन के बाद चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और अंतत: नौ दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गयी.
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