Saturday, March 13, 2010

अन्य किसी मनीषी ने तो अतिमन, विकसनशील अध्यात्मिकता, और चैत्य पुरूष की अवधारणा भी नहीं दिया

Thursday, January 21, 2010

निबंध संग्रह - राष्ट्रीयता दर्शन और अभिव्यक्ति - अशोक मनीष

पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि लेखक प्राचीन भारत के विराट भग्नावशेषों से अभिभूत हो उठ है तथा राष्ट्र को वह समष्ठि के एक आदर्श धर्म या रिलिजन के रूप में स्थापित कराना चाहते हैं पर ऐसा है नहीं। लेखक की दृष्टि समष्टि की सामाजिक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक अवधारणा से भी आगे है। ‘प्रकृतिस्थ-पुरूष की खोज तो सच्ची आध्यात्मिक सत्ता के जागरण का केवल पहला पग होता है’। वह व्यक्ति और समिष्ट में बिना भेद एवं पक्षपात किये कम से कम तीन उच्चतर रूपान्तरणों की बात करते हैं। और तब समझ में आता है कि लेखक ने श्री अरविन्द के योग का एक आध्यात्मिक साधक होने के अपने धर्म और दिव्य चेतना के उच्चतरों से प्रेरित होकर ही इस पुस्तक का सृजन किया है।

कुछ लोगों को लेखक द्वारा महर्षि श्री अरविन्द के ‘पूर्ण-योग’ के दर्शन को बार-बार उदधृत करना खटक सकता है। परंतु क्या किया जाए? लाचारी है, अन्य किसी मनीषी ने तो अतिमन, विकसनशील अध्यात्मिकता, और चैत्य पुरूष की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए वर्तमान यथार्थ की निम्नतर चेतना-स्तर की कंक्रीट की नींव ( तारकोल, खेत, खलिहानों के जगत और हाड़-मांस के मनुष्यद्) और ‘सर्वोच्च अध्यात्मिक चेतना स्तर’ के बीच ‘लिंक’ (सेतु) बनाने और जड़ भौतिक में तदनुसार उस आध्याम्तिक चेतना की अभिव्यक्ति का प्रयास और उसकी सफलता का आश्वासन भी तो नहीं दिया। मेरी समझ में पुस्तक की समस्त गरिमा ‘अनिर्वचनीय’ को ‘वर्चनीय’ ‘अमूर्त’ को ‘मूर्त’ करने का उपाय बताने में निहित है। 

अन्त में, मैं यह स्वीकार करना चाहूँगा कि मैं अपने को पुस्तक के विषय-वस्तु पर कुछ कहने का अधिकारी विद्वान नहीं समझता परंतु, लेखक के आग्रह पर अपने दो शब्द कहने से मैं अपने को रोक भी नहीं पा रहा हूँ। अस्तु, भारी मन से मैं यह धृष्टता कर रहा हूँ। इस प्रकार की धृष्टताओं के औचित्य के संबध में विश्वविद्यालय-शिक्षा से वंचित मनीषी, महापंडित राहुल सांकृत्यान के शब्दों को उद्धरित करता हूँ-“ऐसी धृष्टता के लिए मैं मजबूर था। जब तक अधिकारी व्यक्ति हिन्दी तथा केवल हिन्दी-दाँ जनता को अपनी कृपा का पात्र नहीं समझते तब तक मेरे जैसे अनधिकारियों को धृष्टता करनी ही होगी।“ (“विश्व की रूपरेखा”, प्र॰सं॰-1944 ‘प्रक्कथन’ से)। सतीशचन्द्र श्रीवास्तव ‘सफरचंद’ 668/8 रामेश्वरपुरी, बस्ती (उ॰प्र॰)

No comments:

Post a Comment