۞ Sri Aurobindo ۞ महर्षि अरविन्द
योगी श्री अरबिन्द ने अपने ग्रंथ ''वेद रहस्य'' में लिखा हैः ''यूरोप के सर्वप्रथम वैदिक विद्वानों ने सायण की व्याखयाओं में युक्तियुक्ता की विशेष रूप से प्रशंसा की है तो भी, वेद वाह्य अर्थ के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि सायण की प्रणाली का या उसके परिणामों का बिना बड़े से बड़े संकोच के अनुसरण किया जाये।''
.......सायण प्रणाली की केन्द्रीय त्रुटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड विधि में ही ग्रसत रहता है और निरन्तर वेद के आशय को बलपूर्वक कमकाण्ड के संकुचित सांचे में ढालकर वैसा ही रूप देने का यत्न करता है.... सायण सर्वत्र इसी विचार (कर्मकाण्ड) के प्रकाश में प्रयत्न करता है। इसी सांचे के अन्दर वह वेद की भाषा को ठोंक-पीटकर ढालता है, इसके विशिष्ट शब्दों के समुदाय को भोजन, पुरोहित, दक्षिणा देने वाला, धन-दौलत, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, बलिदान इन कर्मकाण्ड परक अर्थों का रूप देता है।''
''सायण के भाष्य ने पुरानी मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी जो कई शताब्दियों तक तोड़ी नही जासकती।''
''परिणामतः सायण भाष्य द्वारा ऋषियों का, उनके विचारों का, उनकी संस्कृति का, उनकी अभीप्साओं का एक ऐसा प्रतिनिधित्व हुआ है जो उतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर लिया जाए तो वह वेद के सम्बन्ध में प्राचीन पूजा भाव को, इसकी पवित्र प्रामाणिकता को, इसकी दिव्य खयाति को बिल्कुल अबुद्धि गम्य कर देता है।''
(वेद रहस्य, पूर्वार्द्ध, पृ. ५५-५८)
--------------
योगी श्री अरबिन्द-----
यानी ''वैदिक व्याखया के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याखया कोई भी हो, ऋषि दयानन्द को यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में सदा सम्मानितकिया जाएगा। पुराने अज्ञान और बीते युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उसकी ऋषिदृष्टी ही थी जिसने सच्चाई को ढूंढ निकाला और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था, उनकी चाबियों को उसी ने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उसी ने तोड़कर परे फेंक दिया।''
(दयानन्द और वेद, वैदिक मैर्गजीन, नव. १९१६, लाहौर; वेदों का यथार्थ स्वरूप, पृ. ५८)।
योगी श्री अरबिन्द ने अपने ग्रंथ ''वेद रहस्य'' में लिखा हैः ''यूरोप के सर्वप्रथम वैदिक विद्वानों ने सायण की व्याखयाओं में युक्तियुक्ता की विशेष रूप से प्रशंसा की है तो भी, वेद वाह्य अर्थ के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि सायण की प्रणाली का या उसके परिणामों का बिना बड़े से बड़े संकोच के अनुसरण किया जाये।''
.......सायण प्रणाली की केन्द्रीय त्रुटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड विधि में ही ग्रसत रहता है और निरन्तर वेद के आशय को बलपूर्वक कमकाण्ड के संकुचित सांचे में ढालकर वैसा ही रूप देने का यत्न करता है.... सायण सर्वत्र इसी विचार (कर्मकाण्ड) के प्रकाश में प्रयत्न करता है। इसी सांचे के अन्दर वह वेद की भाषा को ठोंक-पीटकर ढालता है, इसके विशिष्ट शब्दों के समुदाय को भोजन, पुरोहित, दक्षिणा देने वाला, धन-दौलत, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, बलिदान इन कर्मकाण्ड परक अर्थों का रूप देता है।''
''सायण के भाष्य ने पुरानी मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी जो कई शताब्दियों तक तोड़ी नही जासकती।''
''परिणामतः सायण भाष्य द्वारा ऋषियों का, उनके विचारों का, उनकी संस्कृति का, उनकी अभीप्साओं का एक ऐसा प्रतिनिधित्व हुआ है जो उतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर लिया जाए तो वह वेद के सम्बन्ध में प्राचीन पूजा भाव को, इसकी पवित्र प्रामाणिकता को, इसकी दिव्य खयाति को बिल्कुल अबुद्धि गम्य कर देता है।''
(वेद रहस्य, पूर्वार्द्ध, पृ. ५५-५८)
--------------
योगी श्री अरबिन्द-----
यानी ''वैदिक व्याखया के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याखया कोई भी हो, ऋषि दयानन्द को यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में सदा सम्मानितकिया जाएगा। पुराने अज्ञान और बीते युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उसकी ऋषिदृष्टी ही थी जिसने सच्चाई को ढूंढ निकाला और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था, उनकी चाबियों को उसी ने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उसी ने तोड़कर परे फेंक दिया।''
(दयानन्द और वेद, वैदिक मैर्गजीन, नव. १९१६, लाहौर; वेदों का यथार्थ स्वरूप, पृ. ५८)।