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Savitri Era of those who adore, Om Sri Aurobindo & The Mother.

Monday, February 10, 2014

ऋषि दयानन्दने सच्चाई को ढूंढ निकाला

۞ Sri Aurobindo ۞ महर्षि अरविन्द
योगी श्री अरबिन्द ने अपने ग्रंथ ''वेद रहस्य'' में लिखा हैः ''यूरोप के सर्वप्रथम वैदिक विद्वानों ने सायण की व्याखयाओं में युक्तियुक्ता की विशेष रूप से प्रशंसा की है तो भी, वेद वाह्य अर्थ के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि सायण की प्रणाली का या उसके परिणामों का बिना बड़े से बड़े संकोच के अनुसरण किया जाये।'' 

.......सायण प्रणाली की केन्द्रीय त्रुटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड विधि में ही ग्रसत रहता है और निरन्तर वेद के आशय को बलपूर्वक कमकाण्ड के संकुचित सांचे में ढालकर वैसा ही रूप देने का यत्न करता है.... सायण सर्वत्र इसी विचार (कर्मकाण्ड) के प्रकाश में प्रयत्न करता है। इसी सांचे के अन्दर वह वेद की भाषा को ठोंक-पीटकर ढालता है, इसके विशिष्ट शब्दों के समुदाय को भोजन, पुरोहित, दक्षिणा देने वाला, धन-दौलत, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, बलिदान इन कर्मकाण्ड परक अर्थों का रूप देता है।''

''सायण के भाष्य ने पुरानी मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी जो कई शताब्दियों तक तोड़ी नही जासकती।''

''परिणामतः सायण भाष्य द्वारा ऋषियों का, उनके विचारों का, उनकी संस्कृति का, उनकी अभीप्साओं का एक ऐसा प्रतिनिधित्व हुआ है जो उतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर लिया जाए तो वह वेद के सम्बन्ध में प्राचीन पूजा भाव को, इसकी पवित्र प्रामाणिकता को, इसकी दिव्य खयाति को बिल्कुल अबुद्धि गम्य कर देता है।''

(वेद रहस्य, पूर्वार्द्ध, पृ. ५५-५८)

--------------

योगी श्री अरबिन्द-----

यानी ''वैदिक व्याखया के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याखया कोई भी हो, ऋषि दयानन्द को यथार्थ निर्देशों के प्रथम आविर्भावक के रूप में सदा सम्मानितकिया जाएगा। पुराने अज्ञान और बीते युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच में यह उसकी ऋषिदृष्टी ही थी जिसने सच्चाई को ढूंढ निकाला और उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था, उनकी चाबियों को उसी ने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को उसी ने तोड़कर परे फेंक दिया।'' 

(दयानन्द और वेद, वैदिक मैर्गजीन, नव. १९१६, लाहौर; वेदों का यथार्थ स्वरूप, पृ. ५८)।
Posted by Tusar Nath Mohapatra at 2:51 AM No comments:

काम की श्रेष्ठ चरितार्थता कहां है

۞ Sri Aurobindo ۞ महर्षि अरविन्द
• मानव समाज के तीन क्रम

मनुष्य का ज्ञान और शक्ति क्रमविकास में नाना रूप धारण करती हैं । उस विकास की तीन अवस्थाएं देखते हैं-शरीर-प्रधान प्राणनियंत्रित प्राकृत अवस्था, बुद्धि-प्रधान उन्नत मध्य अवस्था, आत्म-प्रधान श्रेष्ठ परिणति ।

शरीर-प्रधान प्राणनियंत्रित मनुष्य है काम और अर्थ का दास । वह जानता है सहज स्वार्थ साधारण भाव और प्रेरणा (instinct और impulse); कामना-कामना में अर्थ-अर्थ में संघर्ष उठ खड़ा होने के कारण घटना-परंपरा द्धारा सृष्ट जो व्यवस्था सुविधाजनक मालूम होती है उसे ही वह पसंद करता है, ऐसी थोड़ी या बहुत-सी व्यवस्थाओं की संहति को वह कहता है 'धर्म' । रूचि-परंपरागत, कुलगत या सामाजिक आचार ऐसी ही निम्न प्राकृत अवस्था के धर्म हैं । प्राकृत मनुष्य में मोक्ष की कल्पना नहीं होती, आत्मा का उसे संधान नहीं मिलता । उसकी अबाध शारीरिक और प्राणिक प्रवृत्तियों का अबाध लीला-क्षेत्र है एक कल्पित स्वर्ग । उस ओर उसकी विचार-धारा नहीं जा पाती । देहपात होने पर स्वर्ग जाना ही है उसके लिये मोक्ष ।

बुद्धि-प्रधान मनुष्य काम और अर्थ को विचार द्धारा नियंत्रित करने के लिये सचेष्ट रहता है । वह बराबर ही इस गवेषणा में संलग्न रहता है कि काम की श्रेष्ठ चरितार्थता कहां है, जीवन के अनेक भिन्न मुखी अर्थों में किस अर्थ को प्राधान्य देना उचित है और आदर्श जीवन का स्वरूप क्या है,-बुद्धिचालित किस नियम की सहायता से उस स्वरूप को परिस्फुट एवं उस आदर्श को सिद्ध किया जाता है; बुद्धिमान् मनुष्य इसी स्वरूप, आदर्श नियम के किसी एक श्रुंखलाबद्ध अनुशीलन को समाज का धर्म कह स्थापित करने का इच्छुक है । ऐसी धर्मबुद्धि ही होती है मानस-ज्ञान से आलोकित उन्नत समाज की नियंत्री ।

आत्म-प्रधान मनुष्य बुद्धि मन, प्राण और शरीर से अतीत गूढ़ आत्मा का संधान पा चूका होता है, आत्मज्ञान में ही जीवन की गति प्रतिष्ठित करता है,--मोक्ष, आत्मप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति को ही जीवन की परिणति समझ आत्मप्रधान मनुष्य उस ओर अपनी समस्त गतिविधि परिचालित करना चाहता है, जो जीवन-प्रणाली और आदर्श-अनुशीलन आत्मप्राप्ति के लिये उपयोगी हैं, जिससे मानवीय क्रमविकास के चक्र के उस उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की संभावना है, उसे ही वह कहता है 'धर्म' । श्रेष्ठ समाज ऐसे ही आदर्श, ऐसे ही धर्म से चालित होता है ।

प्राण-प्रधान से बुद्धि में, बुद्धि से बुद्धि के अतीत आत्मा में, एक-एक सीढ़ी करके भागवत पर्वत पर ऊर्ध्वगामी नियम द्धारा होता है मनुष्य-यात्री का आरोहण ।

⁂

किसी भी एक समाज में एक ही धारा नहीं दिखायी देती । प्रायः सभी समाजों में ऐसे तीन प्रकार के मनुष्य वास करते हैं, उस व्यष्टि-समष्टि का समाज भी मिश्र-जातीय होता है ।

प्राकृत समाज में भी बुद्धिमान और आत्मवान् पुरुष रहते हैं । वे यदि विरल हों, संहति-रहित या असिद्ध हों तो समाज पर विशेष कुछ प्रभाव नहीं पड़ता । यदि वे बहुत-से लोगों को संहतिबद्ध कर शक्तिमान् सिद्ध हों तभी वे प्राकृत समाज को मुट्ठी में पकड़कर थोड़ी-बहुत उन्नति कराने में सक्षम होते हैं । पर प्राकृत जन की अधिकता के कारण बुद्धिमान् या आत्मवान् का धर्म प्रायः विकृत हो जाता है, बुद्धि का धर्म convention (परंपरा) में परिणत हो जाता है, आत्मज्ञान का धर्म रुचि और बाह्य आचार के बोझ से दब क्लिष्ट, प्लावित, प्राणहीन और स्वलक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है--सदा यही परिणाम दिखायी देता है ।

जब बुद्धि का प्राबल्य होता है तब बुद्धि को समाज की नेत्री बन अबोध रूचि और आधार को तोड़-फोड़, उलट-पलट कर मानसज्ञान से आलोकित धर्म की प्रतिष्ठा करने की चेष्टा करते हुए देखते हैं । पाश्चात्य ज्ञान का आलोक (enlightenment)साम्य-स्वाधीनता-मैत्री--इस चेष्टा का एक रूप-मात्र है । सिद्धि असंभव है । आत्मज्ञान के अभाव में बुद्धिमान् भी प्राण, मन, शरीर के खिंचाव से अपने आदर्श को अपने-आप ही विकृत करते हैं । निम्न प्रकृति के हाथ से बच निकलना है कठिन । मध्य अवस्था, मध्य अवस्था में स्थायित्व नहीं--या तो है नीचे की ओर पतन या ऊपर की ओर आरोहण । इन्हीं दो खिंचावों के बीच डोलती रहती है बुद्धि । आत्मवान् मनुष्य आत्मज्ञान का ज्योति स्फुरण होने पर उच्च धर्म की उपयुक्त सहायता कर रुचि और आचार को उच्च धर्म में परिणत करने के लिये यत्नशील है । उसके प्रयत्नों में भी अनेक विपत्तियों की संभावना है । निम्न प्रकृति का खिंचाव बहुत बड़ा खिंचाव है । साधारण मनुष्य की निम्न प्रकृति के साथ यदि समझौता करने जायें तो आत्म-प्रधान समाज की भी अधोगति की आशंका है ।

*

[निम्नलिखित अंश श्रीअरविन्द की कापी में ऊपरवाली रचना के ठीक पहले लिखा हुआ है ।]

यही ज्ञान और शक्ति समाज को चलायेगी, समाज का गठन करेगी, जरूरत के अनुसार उसका आकार और साधारण नियम बदल देगी । इस जीवन की गति में ज्ञान और शक्ति के विकास के साथ-साथ समाज का रूपांतर भी अवश्यंभावी है । मनुष्य के जीवन का यथार्थ नियन्ता है भगवद्द्त्त जीवंत ज्ञान और शक्ति जिसकी उत्तरोत्तर वृद्धि है क्रमविकास का उद्देश्य । समाज लक्ष्य नहीं हो सकता, समाज यंत्र और उपाय है । समाजरूपी यंत्र के सहस्र बंधनों में बद्ध मनुष्य के पोषण का अर्थ है, अवश्यंभावी निश्चलता और अवनति ।

जीवन का लक्ष्य है मनुष्य का भगवान् को पाना, भागवत आत्मविकास करना । जो इस लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे उन्हें भगवत्-ज्ञान को ही जैसे व्यष्टि जीवन का वैसे ही समष्टि जीवन का नियामक बनाना होगा । बुद्धि को ज्ञान के आसन पर नहीं बिठाना चाहिये । प्राचीन आर्य-जाति का समाज मुक्त और स्वाधीन समाज था, श्रुति से प्राप्त भागवत ज्ञान पर आधारित कुछ एक मुख्य तत्त्वों से गठित था । और फिर कुछ एक अत्यल्प विशेष नियम आर्यधर्म के मुख्य तत्त्व जिनसे समयोपयोगी सामाजिक आकृति दी जाती है श्रौत धर्मसूत्र में संकलित हैं । जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि का आधिपत्य बढ़ने लगा वैसे-वैसे इन आकृतियों से बुद्धि द्धारा बंधी परिपाटी की स्वाभाविक स्पृहा अब और संतुष्ट नहीं होती । नियम था कि जिस परिमाण में जो शास्त्र श्रुति के पथ पर चलता है वही शास्त्र उसी परिमाण में ग्राह्य है । स्मार्त (स्मृति-शास्त्र) शास्त्र बृहद् रूप से रचित है । फिर भी आर्य इस बात को भूले नहीं कि श्रुति ही असली हैं । स्मृति गौण है, श्रुति सनातन, स्मृति समयोपयोगी । इसीलिये इसके विस्तार से विशेष कोई हानि नहीं हुई । अंत में, बौद्ध विप्लव के अवसान के बाद श्रुति को बिलकुल ही भुलाकर, उसे केवल संन्यास का ही साधन समझ कर शास्त्र को अवास्तविक प्रधानता दी गयी । समाज का लक्ष्य हो गया कि शास्त्र के दृढ़ बंधन द्धारा मनुष्य के सब पक्षों का स्वाधीन संचालन बंद कर निश्चल भाव में किसी तरह से बचा रहे । मनुष्य की स्वाधीन आत्मा का एकमात्र उपाय रह गया समाज का त्याग कर संन्यास अपनाना ।

भागवत विकास में मानुषी बुद्धि गौण उपाय है, असली परिचालक नहीं ।
भारतीय समाज के इतिहास में चार अवस्थाएं देखकर यह समझा जा सकता है ।
Posted by Tusar Nath Mohapatra at 2:24 AM No comments:

हमें चाहिए कि हम छाया के पीछे न दौड़े

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۞ Sri Aurobindo ۞ महर्षि अरविन्द
तुम्हारा एक प्रश्न है कि मै राजनीति से क्यों अलग हो गया ? उसके उत्तर मे मै कहना चाहूँगा कि इस समय भारतवर्ष मे जो राजनीति चल रही है वह वास्तव मे भारत की नहीं है | वह तो बाहरी देशों से लाइ हुई राजनीति है | विदेश की राजनीति का वह भ्रष्ट अनुकरण मात्र है |

हमें चाहिए कि हम छाया के पीछे न दौड़े , अपितु मूल वस्तु को ग्रहण करें | अर्थात हम प्रथम भारत की आत्मा को जागृत करें | जो भी कार्य हम करें , वह प्रत्येक कार्य , भारत की आत्मा के अनुकूल रहना चाहिए |

इस समय कुछ लोग विदेश की राजनीति से भारत के आध्यात्म को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं | उनकी स्थिति ' दुनिया मे दोनो गए , माया मिली ना राम' जैसी हो रही है | फूटे घडे मे पानी भरने जैसा यह प्रयास है | वे लोग प्रभु राम चंद्र जी की मूर्ति को मंदिर मे प्रस्थापित करना चाहते हैं | स्वयं प्रभु रामचंद्र जी को बुलाने की हमारी अभिलाषा है |

(७ अप्रैल १९२० को पांडिचेरी से अपने छोटे भाई बरीन्द्र कुमार को लिखे गए पत्र का अंश जो कि आत्यंतिक रूप से सामयिक है )
महर्षि अरविन्द
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Lokendra Singh Sisodiya Kitni saralta se kitni badi vartman samasya ka samadhan . Lord Naman.
Jan 21
Posted by Tusar Nath Mohapatra at 2:04 AM No comments:
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