Monday, October 29, 2012

श्रीअरविन्द, सावित्री, और पुडुचेरी

पांडिचेरी नहीं, पुडुचेरी  देशबन्धु 29, Oct, 2012, Monday
हम भारतीयों के हृदय में पुडुचेरी के लिए विशेष स्थान है। यह इसलिए कि अपने समय के प्रखर क्रांतिकारी और साहित्यकार अरविन्द घोष ने ब्रिटिश राज से बचने के लिए पुडुचेरी में ही राजनीतिक शरण ली थी। यहीं आकर क्रांतिकारी अरविन्द का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर हुआ और वे कालांतर में महर्षि अरविन्द के नाम से प्रतिष्ठित हुए। श्री अरविन्द के आध्यात्म दर्शन के जो बौध्दिक शिखर हैं उन तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है, लेकिन भारत की धर्मपरायण जनता देश की स्वाधीनता भारत की चिंतन परम्परा में उनके अनुपम योगदान को स्वीकार करती है और इसीलिए वे जनता के श्रध्दापात्र हैं।
पुडुचेरी में समुद्रतट से कोई सौ मीटर की दूरी पर रयू डी ला मैरीन नामक सड़क पर वह भवन है जिसमें अरविन्द ने अपने जीवन का उत्तरार्ध्द बिताया, उसी को आज अरविन्द आश्रम के नाम से जाना जाता है।
अरविन्द आश्रम आजकल के महात्माओं के भव्य आश्रमों से बिलकुल अलग है। जो आश्रम के नाम हरिद्वार और अन्यत्र विकसित, विशाल भवनों की कल्पना करते हैं उन्हें अरविन्द आश्रम पहुंचकर शायद निराशा ही होगी। वह एक बड़े बंगले जैसा दुमंजिला भवन है, जिसमें प्रवेश करने के लिए कोई सिंहद्वार नहीं बल्कि एक साधारण दरवाजा है। इसी परिसर में एक वृक्ष के नीचे श्री अरविन्द की समाधि है। यहां पूरे समय मौन धारण करना पड़ता है, बात करने की बिलकुल मनाही है। एक जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ है- '' जब तुम्हारे पास बात करने के लिए कोई मुद्दा हो तब चुप रहना ही उचित होता है।'' महर्षि की समाधि में एक सादगी है, यद्यपि स्फटिक शिला के ऊपर आश्रमवासी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रतिदिन पुष्प साा करते हैं। बहुत से श्रध्दालु समाधि पर माथा टेककर बैठते हैं, लेकिन उनके लिए भी निर्देश है कि ''वहां यादा बैठें।''
पुडुचेरी के साथ भारतीय प्रज्ञा के दो और बड़े नाम जुड़े हैं। एक तमिल महाकवि भारतीदासन और दूसरे स्वाधीनता सेनानी, नवजागरण के नायक महाकवि सुब्रमण्य भारती। 
मर्त्यलोक की नीरव सीमाओें पर आयी हुई महाशांति के प्रकाशित पट को पार करके गाते-गाते देवर्षि नारद आये। ग्रीष्म ऋतु कीसुनहरी पृथ्वी ने उनको आकर्षित किया और मृत्यु के साथ जीवन जहां आमने-सामने ऊंचा-नीचा होने का खेल खेल रहा है वहां वे श्रम,खोजशोक और आशा की भूमिका की ओर बढ़े। मनोमय की सरहद पार करके उन्होंने अब पंचतत्त्व के प्रदेश में प्रवेश किया और निद्रा मेंकाम करने वाली अंध शक्ति की प्रवृत्तियों के बीच में होकर विचरे। आकाश के आंदोलनों का अनुभव हुआआदि अनिल ने स्पर्श का आद्यआनंद दिया। एक गुप्त आत्मा के श्वसन वहां चल रहे थे। फिर गहन अग्नि का सर्जनकार्य देखने में आयाउसके बाद उत्पा तमोग्रस्त रूपोंकी एकता की मूक तदाकरता में भागीदारी मिली।
अटल निर्माण पर नारद जी के मौन ने मुद्राछाप मारी। भाग्य का भगवान् स्वयं ही इसको बदलना  चाहे वहां तक दूसरी शक्ति इसकोअन्यथा बनाने में समर्थ नहीं है। परंतु भाग्यनिर्माण के विरुद्ध प्रश्न करती हुई एक आवाज उठी। मां के हृदय ने भाग्य-निर्णायक शब्द सुनाथा। वह अब अपनी पे्रमपालिता पुत्री की आत्मा के ऊपर शीशे जैसा भारी हाथ रखा जाता अनुभव करने लगी और सामान्य कक्षा केमनुष्य की भांति काल-जायों के क्लेश के वश हो गयी। वह निश्चल बैठे ऋषि की ओर अभिमुख हुईऔर दैव की अकल गति को पृथ्वी जोप्रश्न पूछती है वह उसने नारद जी से पूछा। बाह्य चेतना में रहते जगत् के हृदय में रहने वाले दु: को और दैव के विरूद्ध उठने वाले मनुष्य केविद्रोह को इसने वाचा दी :
प्रारब्ध ने अपने पूर्वदृष्ट मार्ग का अनुसरण किया। मनुष्य की आशाएं और अभिलाषाएं इसके रथ के चक्र हैं और वे निर्माण के कलेवर कोअज्ञात लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। इसका जन्म मानव की गूढ़ आत्मा में होता है। देह के जीवन को प्रकृति आकार देती हो ऐसा लगता है,देही प्रकृति का हांका हुआ हंकता हैप्रारब्ध और प्रकृति इससे इसकी स्वतंत्र कहलाने वाली इच्छा को कराते हैं। 
परंतु महान् आत्माएं इस समतुला को उलट-सुलट कर डालने में समर्थ होती हैं। वे आत्मा को भाग्य का शिल्पकार बनाती हैं। हमारे अज्ञानद्वारा छुपाया हुआ यह एक गूढ़ सत्य है : प्रारब्ध आंतर शक्ति का संचार-मार्ग हैहमारी बड़ी-बड़ी कसौटियां आत्मा की पसंदगी हैंआत्मा सेआदिष्ट जो होने वाला होता है वह अवश्य होता है।

Sunday, February 05, 2012

जीवन के विभाजन और विखंडन का निराकरण


आदरणीय ... Messages in this topic 
सादर प्रणाम,
               वैदिक परंपरा में विद्या या विदन्यान की दो धाराए रही हैं. वे एक दूसरे को पूरक हैं और साथ साथ बही हैं. परा विद्या (आध्यात्मिक विदन्यान) और अपरा विद्या (भौतिक विदन्यान). वैदिक रुशियों के आश्रमों पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जायेगा कि वैदिक काल में आध्यात्मिक और भौतिक जैसा कोई विभाजन नहीं था. जीवन एक अविभाज्य समग्र इकाई था. वैदिक काल के बाद का जीवन का ह्रास होने लगा  और समग्रता की दृष्टि गायब हो गयी, तो जीवन में विभाजन आ गया. आध्यात्मिक और भौतिक दो विभाग बन गए. इतिहास पर दृष्टी डालने पर हम पाते हैं कि कभी एक पलड़ा भारी हो गया तो कभी दूसरा और एक पलड़े के अर्धसत्य को ही पूर्ण सत्य मान लिया गया. इससे जीवन के साथ अन्याय होता रहा -- यानी जब आध्यात्मिक पक्ष ऊंचे उठा तब भौतिक को नकार दिया गया. इस एकांगिता की प्रतिक्रिया में भौतिक पक्ष का उत्पान (जनम) हुआ तो आध्यात्मिक पक्ष को अस्वीकार कर दिया गया. -- जैसा कि आज हो रहा है. लेकिन मूल तथ्य यह है कि विकास चाहे आध्यात्मिक का हुआ है या भौतिकता का, जीवन जो कि समग्रता है इसका विकास हुआ ही नहीं. यह हमारे मानव इतिहास की बहुत बड़ी विडम्बना है. 
               श्री अरविंद आध्यात्मिक विदन्यान में एक क्रन्तिकारी अनुसन्धान-करता के रूप में वही स्थान रखते हैं जो भौतिक विद-न्यान में अल्बर्ट आईंस्टीन का है. श्री. अरविंद ने आईंस्टीन की तरह आध्यात्मिक विद-न्यान का स्वरुप ही बदल दिया और एक (mutation) के द्वारा पृथ्वी के जीवन को एक नये धरातल पर प्रतिष्टित कर दिया यानि मानव के स्थान पर एक दिव्य पुरुष - डिवाइन being - या पृथ्वी पुरुष को भावी जीवन के विकास आधार बना दिया. अब पृथ्वी के जीवन का भावी विकास इस दिव्य पुरुष के विकास पर आधारित रहेगा. यहाँ ध्यान राखने की बात यह है कि इस दिव्य पुरुष का आविर्भाव या अभ्युदय महज कोई आध्यात्मिक अनुभूति या चमत्कारी घटना नहीं है. 
                श्री अरविंद ने अपने अनुसन्धान के द्वारा जीवन के इस विभाजन और विखंडन का निराकरण करके जीवन को पुन्ह समग्रता का आधार प्रदान किया है और इस समग्र चेतना को, सुपर चेतना को, 'सुपर माईंड' या 'अतिमानस' का नाम दिया. सुपर माईंड की समग्र चेतना न केवल भूतकाल की मानव जीवन की विसंगति का अंत करती है बल्कि भविष्य के लिए एक नये मानवेतर दिव्य जीवन का भी आरम्भ करती है यह श्री. अरविंद के ऐतिहासिक अनुसन्धान का परिणाम है. 
                सन १९५८ में जब विनोबा जी पोंडिचेरी में माँ (the Mother ) का आशीर्वाद लेकर लौटे तो सर्वोदय कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि अतिमानस के रूप में पृथ्वी के ऊपर नये सत्य का उदय हो रहा है. यदि हमें नये भविष्य का निर्माण करना है तो मन से ऊपर उठ कर इस सत्य को अपने अन्दर धारण करना होगा. यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि परमेश्वर इस सृष्टि का विनाश करना चाहते हैं. (विनोबा जी का यह कथन पवनार से प्रकाशित "मैत्री पत्रिका" में भी छपा था. )
                विनोबाजी की यह उक्ति कि  "जीवनम सत्य शोधनम"  तो सर्व विदित ही है. श्री. अरविंद की स्थिती और अनुसन्धान की तथा विनोबा जी की सर्व विदित उक्ति के अनुभव के आधार पर मेरा भी इन दोनों से आकर्षण रहा है. 
                सुपर माईंड के रूप में पृथ्वी को उसका आत्मोदय प्राप्त हो गया है. सुपर माईंड पृथ्वी की आत्मा का नाम है. इस आत्मोदय ने पृथ्वी को वस्तु से व्यक्ति याने dead thing से living being बना दिया है. उससे आत्मोदय से सर्वोदय का रास्ता साफ़ हो गया है. प्रकृति के उद्धार का मार्ग प्रशस्त हो गया है. It is radical new dimention of life and existence and that only fulfills the aspirations of Gandhi ji and Vinobaj ji. 
                श्री. अरविंद ने ऐईनस्टीन की तरह भावी जगत का एक सूत्र दिया है. जिस प्रकार आईंस्टीन के सूत्र को लेकर आज के युवा वैज्ञानिकों ने एक महल की रचना कर डाली है उसी प्रकार  हम को यानि Post Aurobindonian Spiritual Scientists को super-mind का सूत्र अप्लाय करके एक नये जीवन और जगत की सृष्टि करनी होगी. इसके लिए एक appropriate technology का पहले अनुसन्धान करना होगा. 
" This is our immediate task and I am inspired for this action. " 
                आपके बोधप्रद मार्गदर्शन और सहचिन्तन के लिए नम्रतापूर्वक यह पत्र आपके पास भेज रहा हूँ . कृपया पहुँच दें. 
                जय जगत .......

                              
                विनम्र 
                                       कृष्णराज मेहता 
पता: कृष्णराज मेहता,
एफ - ४ साधना मंदिर,
कुमार पार्क, बिबवेवाडी,
कोंढवा रोड, पुणे - ४११ ०३७ 
दूर-ध्वनि - ०२० - २४२६ ६४०३.

Thursday, January 19, 2012

Ramesh Bijlani | speakingtree.in

Ramesh Bijlani's Profile | speakingtree.in: 'via Blog this' Jan 15, 2012 at 08:25 pm
Ramesh Bijlani has created a blog Obsessive Compulsive Spirituality
Don’t speak. Act. Don’t Announce. Realise. THE MOTHER

Among the visitors to spiritual organizations like Sri Aurobindo Ashram are some dead serious, sincere and intense young people who claim to be on the spiritual path but seem to be on the verge of losing their mental balance, if they have not lost it already. The question naturally arises what makes something as laudable as the spiritual path a risky road to walk on. The risk lies in a faulty approach to spirituality. Young people who become miserable as a result of their engagement with spirituality invariably treat spirituality as yet another worldly achievement. They go about searching for techniques that would take them to the peak by the easiest, shortest and fastest route. They treat spirituality like mountaineering. They want to climb nothing less than the Everest, and feel entitled to do so because they are ready to spend all their energy looking for and learning the best techniques. They may try several techniques simultaneously, or in quick succession, with great vigour. They may go straightaway to the advanced pranayamas, or meditate for hours or days at a stretch under the mistaken impression that if something is good, more of it should be better. Then they start looking for signs of progress. So obsessed are they with getting there as quickly as possible that they attach great importance to their ‘visions’, ‘dreams’ and ‘experiences’. They try to hold on to these real or imagined events, try to repeat them, improve upon them, and talk about them, either to seek approval and confirmation, or to impress people. But instead of getting the peace that may be expected on the spiritual path, they get only more and more disturbed. Unless they correct the fatal flaw in their approach to spirituality, they end up on the psychiatrist’s couch.

In order to understand how the approach of these sincere but misguided young people to spirituality is flawed, let us digress to an ordinary young person. He wants wealth, power, and prestige. In the pursuit of what he wants, he becomes completely absorbed in himself. Our young man on the spiritual path wants to reach spiritual heights. In the pursuit of what he wants, he also becomes completely absorbed in himself. Hence there is no fundamental difference between these two young men. They both want something badly. They are both afflicted with acute self-absorption. The desire in both cases is intense, and the impatience of the seeker is palpable. The difference lies only in what they want. In a sense, our spiritual enthusiast is the worse of the two. The seeker of wealth, name and fame may at least temper his pursuit because of ethical considerations and out of decency. But the one wanting spiritual victory may be blatantly egoistic because he does not feel any scruples are necessary in pursuing the noblest of goals. The result is that spiritual enthusiasts frequently find themselves entangled in one or more of the following deadly traps.


जैसे श्री अरबिंदो आश्रम आध्यात्मिक संगठनों के लिए आगंतुकों के अलावा कुछ मृत गंभीर, ईमानदार, और तीव्र युवा लोग हैं, जो आध्यात्मिक पथ पर होने का दावा है, लेकिन अपने मानसिक संतुलन खोने के कगार पर हो सकता है, अगर वे इसे नहीं पहले से ही खो दिया है लग रहे हैं. प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है क्या कुछ के रूप में आध्यात्मिक पथ करने के लिए एक जोखिम भरा सड़क पर चलने के रूप में प्रशंसनीय बनाता है. जोखिम आध्यात्मिकता के लिए एक दोषपूर्ण दृष्टिकोण में निहित है. युवा लोग हैं, जो आध्यात्मिकता के साथ उनकी सगाई का एक परिणाम के के रूप में दुखी हो जाते हैं हमेशा अभी तक एक सांसारिक उपलब्धि के रूप में आध्यात्मिकता का इलाज. वे के बारे में तकनीक है कि उन्हें आसान, कम से कम और सबसे तेजी से मार्ग द्वारा पीक करने के लिए ले जाएगा के लिए खोज जाओ. वे पर्वतारोहण की तरह आध्यात्मिकता का इलाज. वे एवरेस्ट से कम कुछ भी नहीं चढ़ाई करना चाहते हैं, और लगता है कि ऐसा करने के हकदार है क्योंकि वे अपने सभी ऊर्जा के लिए देख रहे हैं और बेहतरीन तकनीक सीखने खर्च करने को तैयार हैं. वे महान उत्साह के साथ एक साथ, या जल्दी उत्तराधिकार में कई तकनीकों की कोशिश कर सकते हैं. वे सीधे उन्नत प्राणायाम, या हो सकता है गलत धारणा है कि अगर कुछ अच्छा है, इसे और अधिक बेहतर किया जाना चाहिए के तहत एक खंड में घंटे या दिन के लिए ध्यान. तब वे प्रगति के संकेत के लिए तलाश शुरू करते हैं. तो पागल वे कर रहे हैं वहाँ के रूप में जल्दी हो रही है के रूप में संभव के साथ है कि वे उनके 'दर्शन' को काफी महत्व देते हैं, 'सपने' और 'अनुभवों'. वे इन असली या कल्पना की घटनाओं पर पकड़ की कोशिश करते हैं, उन्हें दोहराने के लिए, उन पर सुधार करने के लिए, और उनके बारे में बात करने के लिए, या तो अनुमोदन और पुष्टि की तलाश के लिए, या लोगों को प्रभावित करने की कोशिश. लेकिन शांति है कि आध्यात्मिक मार्ग पर उम्मीद की जा सकती हो रही करने के बजाय, वे केवल और अधिक परेशान हो. जब तक वे आध्यात्मिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण में घातक दोष सही, वे मनोचिकित्सक सोफे पर खत्म होता है.

आदेश में समझने के लिए कैसे इन ईमानदारी लेकिन गुमराह युवा लोगों की आध्यात्मिकता करने के लिए दृष्टिकोण से दोषपूर्ण है, हमें एक साधारण युवा व्यक्ति के लिए पीछे हटना. वह धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, और चाहता है. वह क्या चाहता है की खोज में, वह पूरी तरह खुद में लीन हो जाता है. हमारे आध्यात्मिक पथ पर जवान आदमी को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुँचने के लिए करना चाहता है. वह क्या चाहता है की खोज में, वह भी अपने आप में पूरी तरह से अवशोषित हो जाता है. इसलिए इन दो युवा पुरुषों के बीच कोई बुनियादी फर्क है. वे दोनों बुरी तरह से कुछ करना चाहते हैं. वे दोनों तीव्र आत्म अवशोषण के साथ पीड़ित हैं. दोनों ही मामलों में इच्छा तीव्र है, और साधक की अधीरता साफ नजर आती है. अंतर में वे क्या चाहते हैं ही निहित है. एक मायने में, हमारे आध्यात्मिक उत्साही दो में से भी बदतर है. धन, नाम और प्रसिद्धि के साधक कम से कम नैतिक शालीनता की और विचारों की वजह से उसका पीछा गुस्सा हो सकता है. लेकिन आध्यात्मिक जीत चाहते हैं एक blatantly अहंकारी हो सकता है क्योंकि वह महसूस नहीं करता है किसी भी संदेह लक्ष्यों के noblest पीछा में आवश्यक हो सकता है. नतीजा यह है कि आध्यात्मिक के प्रति उत्साही अक्सर एक या एक से अधिक निम्नलिखित घातक जाल में खुद उलझ पाते.