साहित्य में आधुनिकता एवं समीक्षा / हरेकृष्ण मेहेर (Modernity and Criticism in Literature)
from Dr. Harekrishna Meher Sāhitya me Ādhunikatā Evam Samīkshā (Hindi Article) (Modernity and Criticism in Literature) By : Dr. Harekrishna Meher साहित्य में आधुनिकता एवं समीक्षा· डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
चाहे प्राच्य हो या पाश्चात्य, अच्छे गुणों का ग्रहण करके मूल्यबोध सहित उन्हें प्रस्तुत करना लेखक की प्रतिभा का सुपरिचायक होता है । विषय-वस्तु जो भी हो, औचित्यपूर्णता के साथ नूतनता का स्पर्श देकर नव्य काव्य का प्रणयन किया जा सकता है । परम्परा या प्राचीनता का दोष देकर आयातित वस्तुओं से आधुनिकता को प्रकट करना स्पृहणीय नहीं । आज की आधुनिकता आगामी दिनों में प्राचीनता के नाम से ही पहचानी जायेगी ।
अन्य भाषा-साहित्यों की तरह संस्कृत में भी हर विधा की सारस्वत साधना चली आ रही है । आधुनिक दृष्टि-कोण से व्याकरणानुसार नये-नये शब्दों का गठन और नवीन प्रयोग किये जा रहे हैं । जीवन के हर क्षेत्र में उत्तम और सुचारु परिचालना हेतु एक सीमा यानी मर्यादा होती है । उसी प्रकार हर भाषा के प्रयोग में भी एक मर्यादा है । संस्कृत तो भाषा-जननी है । वह अपनी सुनीति-ज्योति से अन्यों को आलोकित करती है । इसलिये सहृदय लेखकों द्वारा अरुचिकर तत्त्वों को छोड़कर सांप्रतिक तथा आगामी समाज के लिये उपादेय तत्त्वों का परिवेषण करना चाहिये, जिससे भाषा और समाज सुप्रतिष्ठित हों । आधुनिक प्रगति के नाम पर अपसंस्कृति से जुड़ी दुर्गति कदापि काम्य नहीं है । प्रदूषक तत्त्वों का परिहार सर्वथा सराहनीय है ।समीक्षा केवल दोष-दर्शन रूप आलोचना नहीं होनी चाहिए । केवल आधुनिक मुक्त-छन्द में लिखित साहित्य ही साहित्य–पद-वाच्य है और पूर्व सूरियों या सांप्रतिक सूरियों की पारम्परिक छन्दोबद्ध कविता साहित्य-पद-वाच्य नहीं – इस प्रकार सोचना नितान्त भ्रम है । अन्यान्य साहित्यों की भाँति संस्कृत में काव्य-रचना की दिशा में प्राचीन छन्दों या पारंपरिक छन्दों सहित मुक्त-छन्दों का सबल प्रयोग चल रहा है । मुक्त-छन्द में वर्ण और मात्रा के बन्धन न होने के कारण भाव-प्रकाशन में शब्दप्रयोग की स्वाधीनता रहती है । फिर मुक्त-छन्द भी लेखक की अपनी शैली से नये-नये प्रकार के बनाये जा सकते हैं । पारंपरिक छन्द और मुक्त-छन्द अपने अपने स्थान पर मर्यादा-सम्पन्न हैं । मनुष्य प्राचीनता से शिक्षा प्राप्त करके नूतनता में प्रवेश करता है, अतीत से ही वर्त्तमान को बनाता है और भविष्य की उज्ज्वल संभावना देखता है ।
प्राचीनता या परम्पराबद्धता या परम्परा का अनुसरण वास्तव में दोष नहीं ; उसे दोष-रूप में प्रस्तुत करना समीक्षक का दोष बन सकता है । लेखक अपनी रुचि के अनुसार लिखता है । आधुनिक साहित्यों में, विशेषकर संस्कृत साहित्य में, आजकल पारम्परिक भजन, स्तुति या भक्ति-परक काव्य-कविताएँ विविध शैलियों में लिखी जा रही हैं । ये भी जीवन के अंग-स्वरूप साहित्य के अंश-विशेष हैं । मुक्त-छन्द किसी एक भाषा का अपना तत्त्व नहीं है; वह प्राय हर भाषा-साहित्य में सुविधानुसार अपनी शैली में अपनाया गया है । आधुनिकता के नाम पर पुरातन रचनाओं के या पारंपरिक शैली में लिखित वर्त्तमान की रचनाओं के प्रति तुच्छ ज्ञान करना या अनादर भाव प्रदर्शन करना सुन्दर समीक्षा नहीं कही जा सकती । जिस प्रकार पारंपरिक छन्दों में रचित नूतन दृष्टिकोण-युक्त या नव्य-संवेदना-संपन्न उत्तम रचनाओं को पुरातन कहकर उनकी उपेक्षा करना समीचीन नहीं, उसी प्रकार मुक्त-छन्दों में प्रणीत नयी रचनाओं के प्रति प्राचीन छन्दों के समर्थकों द्वारा अनादर भाव पोषण भी उचित नहीं है ।भारत के प्रान्तीय भाषा-साहित्यॊं में कई सुन्दर राग-रागिणियाँ और छन्द हैं । कुछ संस्कृत कवि सुविधानुसार उनमें से कुछ छन्दों को संस्कृत में अपनाकर उनका प्रयोग कर रहे हैं । उसी भाँति विदेशी भाषाओं के कुछ छन्दों को भी संस्कृत में अपनाकर उनका प्रयोग और परीक्षण किया जा रहा है । परन्तु उसी दृष्टि से ही अपने को आधुनिक कहलाना सत्य का अपलाप होगा । काया को विदेशी ढाँचे से आवृत किया जा सकता है, परन्तु आत्मा को नहीं । तथ्य तो यह है कि हर भाषा के साहित्य में मिश्रित छन्दों के प्रयोग से विविध कृतियाँ रची जा रही हैं । फिर भी शैली की दृष्टि से हर भाषा की स्वकीय विशेषताएँ हैं । आधुनिकता में नयी दृष्टिभगी होनी चाहिये; तभी लेखनी की सार्थकता बनती है । उसके साथ ही उपयुक्त समीक्षण साहित्य के लिये हितकारी है ।