हम भारतीयों के हृदय में पुडुचेरी के लिए विशेष स्थान है। यह इसलिए कि अपने समय के प्रखर क्रांतिकारी और साहित्यकार अरविन्द घोष ने ब्रिटिश राज से बचने के लिए पुडुचेरी में ही राजनीतिक शरण ली थी। यहीं आकर क्रांतिकारी अरविन्द का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर हुआ और वे कालांतर में महर्षि अरविन्द के नाम से प्रतिष्ठित हुए। श्री अरविन्द के आध्यात्म दर्शन के जो बौध्दिक शिखर हैं उन तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है, लेकिन भारत की धर्मपरायण जनता देश की स्वाधीनता व भारत की चिंतन परम्परा में उनके अनुपम योगदान को स्वीकार करती है और इसीलिए वे जनता के श्रध्दापात्र हैं।
पुडुचेरी में समुद्रतट से कोई सौ मीटर की दूरी पर रयू डी ला मैरीन नामक सड़क पर वह भवन है जिसमें अरविन्द ने अपने जीवन का उत्तरार्ध्द बिताया, उसी को आज अरविन्द आश्रम के नाम से जाना जाता है।
अरविन्द आश्रम आजकल के महात्माओं के भव्य आश्रमों से बिलकुल अलग है। जो आश्रम के नाम हरिद्वार और अन्यत्र विकसित, विशाल भवनों की कल्पना करते हैं उन्हें अरविन्द आश्रम पहुंचकर शायद निराशा ही होगी। वह एक बड़े बंगले जैसा दुमंजिला भवन है, जिसमें प्रवेश करने के लिए कोई सिंहद्वार नहीं बल्कि एक साधारण दरवाजा है। इसी परिसर में एक वृक्ष के नीचे श्री अरविन्द की समाधि है। यहां पूरे समय मौन धारण करना पड़ता है, बात करने की बिलकुल मनाही है। एक जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ है- '' जब तुम्हारे पास बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब चुप रहना ही उचित होता है।'' महर्षि की समाधि में एक सादगी है, यद्यपि स्फटिक शिला के ऊपर आश्रमवासी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रतिदिन पुष्प साा करते हैं। बहुत से श्रध्दालु समाधि पर माथा टेककर बैठते हैं, लेकिन उनके लिए भी निर्देश है कि ''वहां यादा न बैठें।''
पुडुचेरी के साथ भारतीय प्रज्ञा के दो और बड़े नाम जुड़े हैं। एक तमिल महाकवि भारतीदासन और दूसरे स्वाधीनता सेनानी, नवजागरण के नायक महाकवि सुब्रमण्य भारती।
पुडुचेरी में समुद्रतट से कोई सौ मीटर की दूरी पर रयू डी ला मैरीन नामक सड़क पर वह भवन है जिसमें अरविन्द ने अपने जीवन का उत्तरार्ध्द बिताया, उसी को आज अरविन्द आश्रम के नाम से जाना जाता है।
अरविन्द आश्रम आजकल के महात्माओं के भव्य आश्रमों से बिलकुल अलग है। जो आश्रम के नाम हरिद्वार और अन्यत्र विकसित, विशाल भवनों की कल्पना करते हैं उन्हें अरविन्द आश्रम पहुंचकर शायद निराशा ही होगी। वह एक बड़े बंगले जैसा दुमंजिला भवन है, जिसमें प्रवेश करने के लिए कोई सिंहद्वार नहीं बल्कि एक साधारण दरवाजा है। इसी परिसर में एक वृक्ष के नीचे श्री अरविन्द की समाधि है। यहां पूरे समय मौन धारण करना पड़ता है, बात करने की बिलकुल मनाही है। एक जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ है- '' जब तुम्हारे पास बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब चुप रहना ही उचित होता है।'' महर्षि की समाधि में एक सादगी है, यद्यपि स्फटिक शिला के ऊपर आश्रमवासी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रतिदिन पुष्प साा करते हैं। बहुत से श्रध्दालु समाधि पर माथा टेककर बैठते हैं, लेकिन उनके लिए भी निर्देश है कि ''वहां यादा न बैठें।''
पुडुचेरी के साथ भारतीय प्रज्ञा के दो और बड़े नाम जुड़े हैं। एक तमिल महाकवि भारतीदासन और दूसरे स्वाधीनता सेनानी, नवजागरण के नायक महाकवि सुब्रमण्य भारती।
मर्त्यलोक की नीरव सीमाओें पर आयी हुई महाशांति के प्रकाशित पट को पार करके गाते-गाते देवर्षि नारद आये। ग्रीष्म ऋतु कीसुनहरी पृथ्वी ने उनको आकर्षित किया और मृत्यु के साथ जीवन जहां आमने-सामने ऊंचा-नीचा होने का खेल खेल रहा है वहां वे श्रम,खोज, शोक और आशा की भूमिका की ओर बढ़े। मनोमय की सरहद पार करके उन्होंने अब पंचतत्त्व के प्रदेश में प्रवेश किया और निद्रा मेंकाम करने वाली अंध शक्ति की प्रवृत्तियों के बीच में होकर विचरे। आकाश के आंदोलनों का अनुभव हुआ, आदि अनिल ने स्पर्श का आद्यआनंद दिया। एक गुप्त आत्मा के श्वसन वहां चल रहे थे। फिर गहन अग्नि का सर्जनकार्य देखने में आया, उसके बाद उत्पा तमोग्रस्त रूपोंकी एकता की मूक तदाकरता में भागीदारी मिली।
अटल निर्माण पर नारद जी के मौन ने मुद्राछाप मारी। भाग्य का भगवान् स्वयं ही इसको बदलना न चाहे वहां तक दूसरी शक्ति इसकोअन्यथा बनाने में समर्थ नहीं है। परंतु भाग्यनिर्माण के विरुद्ध प्रश्न करती हुई एक आवाज उठी। मां के हृदय ने भाग्य-निर्णायक शब्द सुनाथा। वह अब अपनी पे्रमपालिता पुत्री की आत्मा के ऊपर शीशे जैसा भारी हाथ रखा जाता अनुभव करने लगी और सामान्य कक्षा केमनुष्य की भांति काल-जायों के क्लेश के वश हो गयी। वह निश्चल बैठे ऋषि की ओर अभिमुख हुई, और दैव की अकल गति को पृथ्वी जोप्रश्न पूछती है वह उसने नारद जी से पूछा। बाह्य चेतना में रहते जगत् के हृदय में रहने वाले दु:ख को और दैव के विरूद्ध उठने वाले मनुष्य केविद्रोह को इसने वाचा दी :
प्रारब्ध ने अपने पूर्वदृष्ट मार्ग का अनुसरण किया। मनुष्य की आशाएं और अभिलाषाएं इसके रथ के चक्र हैं और वे निर्माण के कलेवर कोअज्ञात लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। इसका जन्म मानव की गूढ़ आत्मा में होता है। देह के जीवन को प्रकृति आकार देती हो ऐसा लगता है,देही प्रकृति का हांका हुआ हंकता है, प्रारब्ध और प्रकृति इससे इसकी स्वतंत्र कहलाने वाली इच्छा को कराते हैं।
परंतु महान् आत्माएं इस समतुला को उलट-सुलट कर डालने में समर्थ होती हैं। वे आत्मा को भाग्य का शिल्पकार बनाती हैं। हमारे अज्ञानद्वारा छुपाया हुआ यह एक गूढ़ सत्य है : प्रारब्ध आंतर शक्ति का संचार-मार्ग है, हमारी बड़ी-बड़ी कसौटियां आत्मा की पसंदगी हैं, आत्मा सेआदिष्ट जो होने वाला होता है वह अवश्य होता है।
No comments:
Post a Comment